Table of Contents
- Sant Ravidas Ji ki kahani “Man Changa to Kathauti men Ganga”
- भाग 1 – “काशी के संत और कठौती का रहस्य”
- भाग 2 – “हरिराम का अंतर्द्वंद्व”
- भाग 3 – “गांव का संदेह और कठौती का चमत्कार”
- भाग 4 – “राजा का प्रणाम और मीरा का भाव”
- भाग 5 – “मन का तीर्थ और समाज की जागृति”
- भाग 6 – “राजकुमारी की श्रद्धा और कठौती की अंतिम परीक्षा”
- भाग 7 – “विदा का वचन और अमर गाथा”
Sant Ravidas Ji ki kahani “Man Changa to Kathauti men Ganga”
भाग 1 – “काशी के संत और कठौती का रहस्य”
काशी नगरी, जहां गंगा बहती हैं और मंदिरों की घंटियों की गूंज दूर-दूर तक जाती है। जहां हर सुबह सूरज की पहली किरण गंगा के जल पर पड़ते ही आरती के मंत्र वातावरण को पवित्र कर देते हैं। वहीं एक मोहल्ले में, शहर से थोड़ी दूर, संत रविदास जी अपने छोटे से घर में रहते थे।
उनका घर बहुत साधारण था। मिट्टी की दीवारें, खपरेल की छत और बाहर एक नीम का पेड़। घर के सामने एक छोटी सी कुटिया थी जिसमें वह जूते बनाने का कार्य करते थे। आसपास के लोग उन्हें “रैदास मोची” के नाम से जानते थे, लेकिन उनके शिष्यों और जानकारों के लिए वे ईश्वर के दूत थे।
हर सुबह, सूरज उगने से पहले, संत रविदास जी नीम के पेड़ के नीचे बैठकर भजन गाते।
“प्रभुजी तुम चंदन, हम पानी,
जाकी अंग-अंग बास समानी…”
उनका भजन सुनकर लोग खिंचे चले आते। अमीर, गरीब, ऊँच-नीच, स्त्री-पुरुष — सब। उनके शब्दों में ऐसा जादू था जो सीधा दिल को छूता था। एक दिन कुछ शिष्य उनके पास आए। उनके चेहरों पर उत्साह था। उन्होंने प्रणाम किया और बोले,
“गुरुदेव, हमने सोचा है कि इस बार माघ पूर्णिमा के दिन हम सभी प्रयागराज जाकर गंगा स्नान करेंगे। बहुत पुण्य प्राप्त होगा। कहते हैं कि उस दिन गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम अत्यंत पवित्र होता है। साथ चलिए न, आपका साथ हमें और भी पावन बना देगा।”
रविदास जी मुस्कुराए। उनकी मुस्कान में ज्ञान था, अनुभव था।
“प्यारे बच्चों,” उन्होंने कहा, “तुम लोग अवश्य जाओ। जहाँ श्रद्धा हो, वहीं गंगा है।”
शिष्य थोड़ा अचंभित हुए। उन्होंने एक-दूसरे की ओर देखा। एक युवा शिष्य, जिसका नाम हरिराम था, बोला,“गुरुदेव, गंगा जी तो वास्तव में वहां हैं — प्रयाग में। आप क्यों नहीं चलना चाहते?”
रविदास जी कुछ देर शांत रहे। उन्होंने पास रखी एक कठौती (जूते धोने की छोटी सी टंकी) की ओर इशारा किया। पानी से भरी थी। उन्होंने कहा: “यदि मन चंगा है, तो कठौती में भी गंगा है।” सब चुप हो गए।
हरिराम कुछ असहज हुआ। उसने मन में सोचा, “क्या कठौती में भी गंगा हो सकती है? क्या हमारे गुरु अब बूढ़े हो गए हैं और उनकी बातें रहस्यात्मक होती जा रही हैं?”
किंतु उसने कुछ नहीं कहा। कुछ शिष्य तो फिर भी चले गए प्रयाग। लेकिन हरिराम रुक गया — उसकी जिज्ञासा बढ़ गई थी। रात को वह रविदास जी की कुटिया में गया। “गुरुदेव, क्या मैं कुछ पूछ सकता हूँ?”
“पूछो बेटा,” रविदास जी ने कहा। “आप कहते हैं कि मन चंगा तो कठौती में गंगा। लेकिन गंगा तो एक नदी है। आप हर दिन कठौती में काम करते हैं, वह पानी तो जूते धोने वाला होता है… उसमें गंगा कैसे हो सकती है?”रविदास जी ने मुस्कुरा कर कहा: “हरिराम, सच्चे गंगा स्नान का अर्थ है — *अहंकार से स्नान*, *मन के विकारों को धोना*, और *प्रेम में भीग जाना*। वह जल गंगा से भी पवित्र होता है जो मन के मैल को धो डाले। मैं उसी जल में स्नान करता हूँ।”
हरिराम कुछ समझा, कुछ नहीं। सुबह हुई। रविदास जी ने अपने रोज़ के कार्य की शुरुआत की — कठौती में पानी भरा, और जूते धोने लगे। हरिराम वही पास में बैठा था। अचानक उसने देखा कि कठौती का पानी कुछ अलग लग रहा है। उसमें हल्की सी चमक थी।
वह पानी को देखने पास गया। जैसे ही उसने झांका, उसे उसमें बहती हुई गंगा की छवि दिखी — मंदिर, आरती, नाव, और दूर से आती गंगा आरती की आवाज़। हरिराम चौंक गया। वह पानी को हाथ से छूने ही वाला था कि रविदास जी ने मुस्कराकर कहा:
“तुमने देखा न? अब समझे?” हरिराम ने झुक कर उनके चरणों में प्रणाम किया। “गुरुदेव, अब मैं कहीं नहीं जाऊँगा। आपकी कठौती ही मेरे लिए तीर्थ है।”
भाग 2 – “हरिराम का अंतर्द्वंद्व”
हरिराम उस दिन के बाद बहुत विचलित था। वह बाहर से शांत दिख रहा था, लेकिन भीतर उसका मन द्वंद्व से भरा हुआ था। उसने कठौती में वह दृश्य अपनी आंखों से देखा था — बहती गंगा, आरती की झलक, मंदिरों की छाया — और यह सब कुछ एक जूते धोने की छोटी-सी कठौती में!
“क्या यह कोई चमत्कार था? या मेरी कल्पना?” हरिराम का मन उसे तर्क दे रहा था — “गुरुदेव का प्रभाव है, भक्ति से उपजा भ्रम है।”
लेकिन उसका हृदय कहता था — “यह ईश्वर का प्रत्यक्ष साक्षात्कार था।” गली में भक्तों का आना-जाना बढ़ गया था। गांव में अब चर्चा फैल चुकी थी:
“कहा जा रहा है कि रविदास जी की कठौती में गंगा बहती है।” “मैंने तो सुना है, किसी ने उसमें संगम देख लिया!”
“कितने पुण्यात्मा हैं, जो उनके चरणों में बैठते हैं।” कुछ लोग श्रद्धा से खिंचे चले आ रहे थे, तो कुछ लोग तिरस्कार भरे हावभाव में कहते:
“भई, गंगा तो प्रयागराज में है! ये संत बस लोगों को मोहित कर रहे हैं।” “अगर गंगा ऐसे ही बहने लगे, तो फिर तीर्थ यात्रा का क्या अर्थ रह गया?”
रविदास जी इन बातों से अप्रभावित थे। वे प्रतिदिन की तरह अपने कार्य में लगे रहते और भजन गाते रहते। रात को जब हरिराम अकेला बैठा, तो उसने निर्णय किया:
“मैं इस रहस्य को जानकर रहूँगा। यह चमत्कार नहीं, कुछ और है — गुरु की अनुभूति शायद, लेकिन मुझे इसे समझना है। मैं कठौती में ही डूबूंगा, और उस गंगा का अर्थ खोजूंगा।” उसने उसी रात एक पवित्र व्रत लिया — 21 दिनों तक वह किसी और साधना में नहीं लगेगा, केवल गुरु की कठौती और उनके भजनों में।
हर सुबह रविदास जी कठौती में पानी भरते, और हरिराम उनके पास बैठता। वह चुपचाप उन्हें देखता, उनके शब्दों को सुनता, और कठौती में झांकता। कभी उसे कुछ नहीं दिखता।
कभी हल्की सी झिलमिलाहट। कभी पानी शांत — जैसे आईना। 21 दिनों तक वह कठौती के पास बैठा रहा — बिना विचलित हुए, बिना कोई प्रश्न किए। उसके भीतर एक बदलाव होने लगा। वह अब जल की जगह अपने अंदर झांकने लगा।
21वें दिन, रविदास जी ने अचानक उससे पूछा: “हरिराम, क्या देखा इन 21 दिनों में?” हरिराम शांत था। फिर उसने उत्तर दिया:
“गुरुदेव, मैंने गंगा को देखा — पर बाहर नहीं। मैंने अहंकार को तिरते देखा, अपने क्रोध को डूबते देखा, और अंत में — एक शांत जल… जो सिर्फ प्रेम से भरा था।” रविदास जी मुस्कुराए।
“अब तू तैयार है, हरिराम। अब गंगा तुझमें है। अब तुझे प्रयाग जाने की आवश्यकता नहीं।” हरिराम की आंखों से अश्रु बहने लगे। उसने कहा: “आपका चरण ही मेरा तीर्थ है, गुरुदेव।”
भाग 3 – “गांव का संदेह और कठौती का चमत्कार”
काशी नगरी में अब रविदास जी की कठती चर्चा का विषय बन गई थी। कुछ लोग भक्ति से खिंचे चले आते थे, तो कुछ लोगों को यह बात चुभ रही थी — “एक मोची के घर में गंगा!?”
बड़ी जाति के पंडित और धनवान व्यापारी इस बात से विचलित थे। उनमें से कुछ ने पंचायत में कहा ,“यह सब जनता को भ्रमित करने का षड्यंत्र है। गंगा कोई बाल्टी में बहती है क्या? यह धर्म का अपमान है!”
पंडित रामशरण, जो बड़े विद्वान माने जाते थे, बोले,“गंगा भगवान शिव की जटा से निकली है। वह केवल प्रयाग, हरिद्वार, और काशी में पवित्र मानी जाती है। एक शूद्र की कठौती में कैसे आ सकती है?”
लोगों के मन में भक्ति और भ्रम के बीच द्वंद्व था। पंचायत में यह तय हुआ कि रविदास जी की परीक्षा ली जाएगी। एक दिन सुबह-सुबह गांव के मुखिया और कुछ ब्राह्मण उनके घर पहुँचे। हरिराम और अन्य शिष्य वहां पहले से थे।
मुखिया ने विनम्रता और कुछ तुच्छता भरे स्वर में कहा,“रविदास जी, हम आपके चमत्कारों की बहुत चर्चा सुन रहे हैं। यदि सचमुच आपकी कठौती में गंगा है, तो हमें भी दर्शन कराइए।
हमें प्रमाण चाहिए कि आप जो कहते हैं, वह सत्य है।”रविदास जी शांत मुस्कराए। उन्होंने सिर झुकाया और बोले,“जो आंखें श्रद्धा से देखती हैं, वही गंगा के दर्शन करती हैं।
फिर भी, आप चाहें तो आज कठौती में वही जल भरा जाएगा और जो होगा, वह ईश्वर की इच्छा होगी।”
पंडित रामशरण ने व्यंग्य किया,“तो आज देखेंगे कि यह कठौती गंगा बनती है या नहीं!” रविदास जी ने रोज़ की तरह अपनी कठौती में जल भरा। उन्होंने दो जूते उठाए, और धीरे-धीरे उसमें धोने लगे।
हर कोई कठौती की ओर देख रहा था। शुरू में सबकुछ सामान्य लग रहा था। फिर…पानी में एक हल्का कंपन हुआ।…जल पर एक आभा सी चमकने लगी।
…धीरे-धीरे सभी ने देखा कि उस पानी में तीन नदियों का संगम दिख रहा है — गंगा, यमुना और सरस्वती। जल का रंग बदलने लगा — कभी हल्का नीला, कभी चांदी सा चमकता हुआ सफेद।
फिर, सबकी आंखों के सामने, कठौती का पानी उठने लगा जैसे वह कोई प्राकृतिक सरोवर हो… और उसमें से गंगा आरती के मंत्र सुनाई देने लगे — स्पष्ट और मधुर “ॐ नमो गंगे, त्रिपथगामिनि त्राहिमाम्…”
कुछ लोग घबरा गए। कुछ रोने लगे। पंडित रामशरण, जो सबसे आगे खड़े थे, अवाक् रह गए। उनकी आंखों से आंसू बह निकले। वह वहीं गिर पड़े — रविदास जी के चरणों में।
“आप तो साक्षात ज्ञान स्वरूप हैं… हम अज्ञान में थे… क्षमा कीजिए।” रविदास जी ने उन्हें उठाया और कहा,
“जाति, कुल, धन, पद – इन सबसे ऊपर है मन की पवित्रता।जब मन निर्मल हो, तो कठौती भी गंगाजल बन जाती है।और जब मन मैला हो, तो गंगा में भी स्नान बेकार है।” हरिराम सब देख रहा था। उसकी आंखों में अब संदेह नहीं था, न कोई प्रश्न।अब वह जान चुका था कि गुरु की कठौती वास्तव में उसका अपना अंतरमन है — जिसे उसने गुरु की छाया में पवित्र किया।
भाग 4 – “राजा का प्रणाम और मीरा का भाव”
काशी के राजमहल में सुबह की सभा चल रही थी। रजवाड़ों के लोग, सेनापति, पुरोहित, सभी एकत्र थे। तभी राजपुरोहित ने कहा, “महाराज, काशी में एक संत रविदास हैं। कहते हैं, उनकी कठौती में गंगा के दर्शन होते हैं। यह चर्चा अब नगर की सीमा से निकलकर राज्य भर में फैल चुकी है।”राजा चौंके नहीं, बल्कि मुस्कुराए। वे अध्यात्म के प्रेमी थे। “क्या संत को बुलाया जा सकता है?” राजा ने पूछा।
पुरोहित ने कहा, “वे राजमहल नहीं आते। कहते हैं, ईश्वर का दरबार राजमहल से ऊँचा है।”राजा गंभीर हुए। बोले, “यदि संत नहीं आ सकते, तो राजा जाएगा।”
राजा अपने दल के साथ रविदास जी की कुटिया पहुँचे। कोई सवारी नहीं, कोई तामझाम नहीं। वे सामान्य वस्त्रों में थे। शिष्य और गांववाले उन्हें पहचान नहीं पाए। लेकिन रविदास जी ने उन्हें दूर से देखकर ही पहचान लिया।
“स्वागत है, राजन। आज आप मेरे नहीं, अपने मन के दरवाजे खोलने आए हैं।” राजा चरणों में झुक गया। उसने कहा, “गुरुदेव, मैं आपके कठौती में झांकना चाहता हूँ — पर अपने भीतर की गंदगी भी साथ लाया हूँ। क्या आप मेरी आत्मा को धो सकते हैं?”
रविदास जी बोले, “कठौती में जल नहीं, भक्ति होती है। और जब राजा भक्त बन जाए, तभी राज्य भी पवित्र होता है।”
राजा के देखते ही देखते कठौती में फिर वही चमत्कार हुआ।इस बार जल में उन्होंने अपने जीवन की झलक देखी —राजसिंहासन, युद्ध, विजय, अहंकार, और फिर… एक छोटा बच्चा — जो हाथ जोड़कर गंगा में स्नान कर रहा था।
राजा की आंखें भर आईं। “गुरुदेव, अब मैं नहीं चाहता कि कोई मुझे महाराज कहे। बस आपसे एक नाम मिले — एक दास का नाम।” रविदास जी ने कहा,.“अब से तुम ‘रैदास का दास’ हो।”
इसी बीच, राजस्थान की भक्त मीरा बाई काशी पहुंचीं। वह संत रविदास जी की प्रसिद्धि से पहले ही प्रभावित थीं।
मीरा जी ने जैसे ही उनके भजन सुने,
“प्रभुजी तुम चंदन, हम पानी…” उनके नेत्र सजल हो गए। वे रविदास जी के चरणों में बैठ गईं और कहा “गुरुदेव, आप तो वह दीप हैं, जिससे मेरा जीवन जलता है। आज से आप मेरे सदगुरु हैं। कृपया मुझे स्वीकार कीजिए।”
रविदास जी ने हाथ उठाकर कहा, “मीरा, तू तो जन्म से ही प्रेम की गंगा है। आज से तू मेरी आत्मबेटी है।”मीरा मुस्कराईं और उसी कठौती के जल से अपने माथे पर तिलक लगाया। उस दिन का दृश्य अद्भुत था।
राजा अपने रथ को छोड़ कर संत के चरणों में था। भक्त मीरा, संत को गुरु मान चुकी थीं। हरिराम, जो एक साधारण शिष्य था, भीतर से संत बन रहा था। कठौती — जो कभी जूते धोने का पात्र था — अब जग का तीर्थ बन चुका था।
भाग 5 – “मन का तीर्थ और समाज की जागृति”
राजा और मीरा बाई के आगमन के बाद काशी में भक्ति की लहर दौड़ पड़ी रविदास जी की कुटिया अब कोई साधारण स्थान नहीं रही।
लोग नित्य वहाँ आते, कठौती के जल को नहीं — संत के वचन को पीते। रविदास जी ने कभी किसी को दूर नहीं किया।
वह कहते,“ना कोई छोटा, ना कोई बड़ा। ईश्वर ने सबके भीतर एक-सा प्रकाश रखा है। मन चंगा हो, तो वही हर स्थान तीर्थ बन जाता है।”
उनके भजन अब लोगों की आत्मा में घर करने लगे थे, “ऐसी लागी लगन, मीरा हो गई मगन…” “मन चंगा तो कठौती में गंगा…” “प्रभुजी तुम चंदन, हम पानी…”
हरिराम, जो कभी कठौती को देख चमत्कृत हुआ था, अब स्वयं साधना में लीन हो चुका था। वह भजन करता, कुटिया की सेवा करता, और आने वाले भक्तों को गुरु का मार्ग बताता। एक दिन उसने गुरु से पूछा, “गुरुदेव, क्या मैं भी कभी उस अवस्था को प्राप्त कर सकता हूँ, जिसमें आप हैं?”
रविदास जी ने कहा, “हरिराम, जब तू यह प्रश्न करना छोड़ देगा, तब ही उत्तर मिल जाएगा। परमात्मा प्रश्नों में नहीं, शांति में मिलता है।” हरिराम शांत हो गया। उसी दिन से उसने संकल्प किया कि वह अब ‘मन को ही तीर्थ’बनाएगा।
रविदास जी के प्रभाव से समाज में हलचल होने लगी। कई ब्राह्मणों के घरों में अब जूते बनाने वाले संत के भजन गूंजने लगे थे। अछूत कहे जाने वाले लोग, अब सम्मानित हो रहे थे।
राजा ने आदेश दिया, “किसी भी संत, भक्ति मार्गी या श्रमिक को उसकी जात से नहीं आंका जाएगा। जो भजन करता है, वही ब्रह्मज्ञानी है।” यह आदेश समाज में क्रांति जैसा था। कई पंडित इसका विरोध कर रहे थे, लेकिन आम जन ने अब अंतर देखना शुरू कर दिया था।
एक दिन सभी शिष्य और भक्त रविदास जी के चारों ओर बैठे थे। हरिराम ने फिर आग्रह किया, “गुरुदेव, कृपया हमें ‘मन के तीर्थ’ का रहस्य समझाइए। आपने कई बार कहा — कठौती गंगाजल क्यों बनी, उसका कारण मन की पवित्रता है — वह कैसे संभव है?”
रविदास जी ने एक दीपक जलाया। सब ध्यान से देखने लगे।उन्होंने पूछा, “इस दीपक में ज्योति कैसे जली?” “तेल और बाती से,” हरिराम ने कहा। “और बाती किससे बनी है?” “कपास से।“कपास किससे?” “बीज और मिट्टी से।” “मिट्टी?” “धरती से।”
रविदास जी बोले, “यही मन है — जो बीज से मिट्टी बनता है, फिर बाती, फिर दीपक। लेकिन अगर तेल अहंकार का हो, तो बाती जल्दी बुझ जाती है। और अगर *तेल भक्ति का हो, तो बाती देर तक जलती है।”
सब शिष्य समझ गए —मन को गंगा बनाना है, तो अहंकार धोना होगा। कठौती की शक्ति मन की निर्मलता में है — बाहर की गंगा नहीं, भीतर की शांति ही असली तीर्थ है।
भाग 6 – “राजकुमारी की श्रद्धा और कठौती की अंतिम परीक्षा”
काशी राज्य की राजकुमारी रत्नावली राजसी वैभव से ऊब चुकी थी। वह ज्ञान, भक्ति और आत्मशांति की खोज में थी राजमहल में गुरु, वेद, उपनिषद, शास्त्र — सब कुछ पढ़ चुकी थी, लेकिन मन में अब भी खालीपन था।
एक दिन राजमहल में मीरा बाई आईं। उन्होंने अपनी गुरु भक्ति की बात कही और कहा, “राजकुमारी, मैं तो अब रैदास जी की शरण में हूँ। वो संत नहीं, खुद ईश्वर का द्वार हैं। अगर तुम चाहो, तो चलो मेरे साथ।”
रत्नावली का मन जैसे वर्षों से यही सुनने को व्याकुल था। वह अगले ही दिन साधारण वस्त्र पहन मीरा के साथ रविदास जी की कुटिया पहुँच गई।
जैसे ही वह वहां पहुँची, वह कठौती के पास जाकर बैठ गई।उसने पूछा, “गुरुदेव, क्या मैं भी उस गंगा को देख सकती हूँ, जो लोगों को नया जीवन देती है?”
रविदास जी ने मुस्कुराकर कहा,“क्या तुम राजकुमारी हो?” रत्नावली बोली — “अब नहीं, मैं तो बस एक खोजी आत्मा हूँ।” “तो फिर कठौती तुम्हें वही दिखाएगी, जो तुम हो। तैयार हो?”
“हाँ, गुरुदेव।” उन्होंने कठौती में जल भरा और रत्नावली से कहा,“अपने भीतर झाँको। जो दिखेगा, उसे देखना, डरना नहीं।” रत्नावली ने जल में झाँका। पहले तो कुछ भी नहीं।
फिर जैसे कोई चित्र उभरने लगे, शाही सिंहासन, अलंकार, दरबार की स्त्रियाँ,झगड़े, ईर्ष्या और अंत में एक छोटी बच्ची जो अकेली खड़ी थी — भीड़ में अकेली।
उसकी आंखों से आंसू बह निकले। वह कांपती हुई बोली,“गुरुदेव, यह मेरी आत्मा है — जो वर्षों से शोर में खोई हुई थी।”
रविदास जी बोले, “गंगा बाहर नहीं बहती, वह भीतर बहती है।तुमने अपने भीतर की धारा देख ली — अब वह पवित्र होगी।”जब यह समाचार फैला कि राजकुमारी भी एक ‘मोची संत’ की शरण में है, राज्य के कुछ रक्षकों और ब्राह्मणों में फिर क्रोध उभरा। “राजधर्म को कलंकित किया जा रहा है!” “रैदास को बंदी बनाओ!”पर जब वे कुटिया पहुँचे, उन्होंने देखा कि वहां सैकड़ों लोग कठौती के पास बैठे हैं — सभी जाति, वर्ण, लिंग, उम्र के भेद को भुलाकर।
रविदास जी वहीं भजन गा रहे थे:
“मन चंगा तो कठौती में गंगा…” और उस दिन कठौती ने फिर चमत्कार किया — इस बार कोई संगम नहीं, कोई धारा नहीं —बस सभी लोगों के चेहरों पर शांति, आंखों में आंसू, और हृदय में प्रकाश।
हरिराम ने गुरु से पूछा,“गुरुदेव, क्या अब गंगा सदा इस कठौती में रहेगी?” रविदास जी ने कहा,“जब-जब किसी का मन निर्मल होगा, जहां-जहां भक्ति की भावना होगी — वहां कठौती में गंगा बह उठेगी। यह केवल एक पात्र नहीं, यह प्रतीक है — मन की साधना का, प्रेम की धार का।”
उन्होंने कठौती को भूमि पर रख दिया, और कहा,“अब यह कठौती किसी एक की नहीं — पूरे समाज की है।”
भाग 7 – “विदा का वचन और अमर गाथा”
वर्षों बीत गए। रविदास जी की कुटिया अब तीर्थ बन चुकी थी। राजा, रानी, किसान, व्यापारी, बालक, वृद्ध – हर कोई वहाँ श्रद्धा से आता था। कठौती अब केवल एक पात्र नहीं थी, बल्कि एक प्रतीक बन चुकी थी – आत्मिक शुद्धता और समता की मूर्त रूप।
एक दिन सुबह, जब रविदास जी ध्यान में थे, हरिराम पास बैठा था। गुरु की आँखें बंद थीं, और चेहरे पर एक विशेष प्रकाश था। अचानक उन्होंने आंखें खोलीं और कहा:
“हरिराम, अब वह समय आ गया है जब शरीर को विदा कहकर आत्मा को यात्रा पर भेजना होगा।”
हरिराम घबरा गया,“गुरुदेव! आप हमें छोड़कर कैसे जा सकते हैं?”
रविदास जी मुस्कराए,“शरीर जाता है, वचन नहीं। भक्ति जाती है, भाव नहीं। और मन की गंगा… वह कभी सूखती नहीं।” सभी प्रमुख शिष्य, मीरा बाई, राजा, रत्नावली, हरिराम – सबको बुलाया गया। रविदास जी ने कठौती के पास बैठकर अंतिम बार सबको संबोधित किया:
“सुनो मेरे बच्चों, मैंने जीवनभर बस एक ही गाथा गाई — कि ईश्वर ऊंच-नीच नहीं देखता, वह तो बस मन की शुद्धता को स्वीकार करता है। जो मन से चंगा है, वही सच्चा साधक है। मेरी कठौती, मेरी कथा नहीं — तुम्हारे भीतर की कथा है। उसे पढ़ो, समझो, और प्रेम के रंग से भर दो।”
मीरा बाई गुरु के चरणों में गिर पड़ीं,“गुरुदेव, आप तो मेरे जीवन का दीपक हैं। अब मैं कैसे जिऊंगी?”
रविदास जी ने धीरे से हाथ उठाया, “मीरा, तू अब स्वयं दीपक है। तू जहाँ जाएगी, वहाँ प्रेम की गंगा बहती रहेगी।” उस रात, रविदास जी कुटिया में कठौती के सामने बैठे। आकाश में पूर्णिमा का चंद्रमा था।
वे भजन गा रहे थे,“मन चंगा तो कठौती में गंगा…” धीरे-धीरे उनकी आंखें बंद हुईं… स्वर धीमा हुआ… फिर मौन।कुटिया में नीरवता छा गई। पर उसी क्षण — कठौती से गंगा की हल्की ध्वनि सुनाई दी — जैसे कोई कह रहा हो:
“मैं यहीं हूँ… तुम सबमें… सदा के लिए।”
रविदास जी के शरीर के जाने के बाद, शिष्यों ने कठौती को एक मंदिर में स्थापित किया — न मूर्ति बनी, न समाधि — बस कठौती और उसके पास लिखे शब्द:
“मन चंगा तो कठौती में गंगा”
मीरा बाई ने अपने जीवन के अंतिम भजन वहीं गाए। हरिराम एक साधक बनकर पूरे भारत में भक्ति का संदेश फैलाने लगा।
राजा ने आदेश दिया:
“अब इस राज्य में कोई भी व्यक्ति जाति से नहीं, कर्म और प्रेम से पहचाना जाएगा।” रविदास जी अब सिर्फ नाम नहीं रहे, वे भाव बन गए। उनकी कथा हर गली, हर गांव, हर मंदिर में गूँजने लगी।
जब कोई प्रेम से सेवा करता है, जब कोई बिना भेदभाव के किसी का हाथ थामता है, जब कोई भीतर झाँककर अपने दोषों को धोता है — वहाँ कठौती की गंगा फिर से बहती है।
इस प्रकार “मन चंगा तो कठौती में गंगा” केवल एक कहावत नहीं — बल्कि एक जीवन दर्शन है।
एक संत की कहानी जो एक साधारण जूता बनाने वाले से उठकर समता, भक्ति, और प्रेम के महान प्रतीक बन गए। उनकी कठौती आज भी हमारे भीतर की गंदगी को धोने के लिए पर्याप्त है — बस शर्त है — “मन चंगा होना चाहिए”।
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जय हिंद